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विमर्श

सुधारवाद और उपन्यास

वैभव सिंह


नवजागरण और सुधार के दौर में हर मुल्क का मध्यवर्ग अपनी विवाह, धर्म और परिवार की संरचनाओं का पुनर्गठन करता है। वह परंपरा से सवाल पूछता है और परंपरा को काटने की कोशिश कर आधुनिकता तक अपना सफर पूरा करता है। परंपरा का मोह भी इस दौर में उतना ही प्रबल रहता है जितना परंपरा के प्रतिरोध का आग्रह। परंपरा से उसका मोह सिर्फ भोलेपन से भरा मोह नहीं होता बल्कि परंपरा की रक्षा करने में उसे स्वार्थ भी नजर आता है। इसी तरह परंपरा तोड़ने में भी वह सिर्फ क्रांतिकारी बाना नहीं धारण किए होता है बल्कि उसके टूटने में ही वह अपनी सत्ता-संरचना को नए सिरे से उभरता देखता है। 19वीं सदी का उपन्यास साहित्य भी परंपरा से मोह और परंपरा के प्रतिरोध की टकराहट का साहित्य है। इस समय के हिंदी साहित्य का बड़ा हिस्सा इन्हीं प्रश्नों से टकराने के कारण सुधारवादी रचनाओं की श्रेणी में रखा जाता है। हिंदी में उपन्यासों का आगमन थोड़ी देर से हुआ और जब हुआ तो सुधारवाद के लक्ष्य उसमें काफी प्रमुख बनकर उभरे। अगर यह कहा जाए कि जो लोग उपन्यास लिख रहे थे, उनके लिए सामाजिक यथार्थवाद नहीं बल्कि सामाजिक सुधारवाद ही प्रमुख था तो गलत नहीं माना जाएगा। समाज को अपने ढंग से बनाने की दृढ़ आकांक्षा को उसमें साफ तौर पर पढ़ा जा सकता है। साहित्यिक टेक्स्ट पहली बार आधुनिकता के पक्ष में समाज में हस्तक्षेप करते दिखाई देते हैं। इससे पहले भी वह परंपरा से टकराते रहे हैं लेकिन परंपरा की किसी योजनाबद्ध आलोचना को विकसित नहीं कर सके। 19वीं सदी में स्थिति थोड़ी अलग है जहाँ आधुनिकता से परंपरा को काटने नहीं बल्कि परंपरा का आधुनिकता से समायोजन तलाशने की कोशिश ऐसे लोगों द्वारा की गई जो समाज में वर्ण-वर्ग और लिंगगत रूप से हमेशा से ही फायदे में रहे हैं। ऐसे में इस दौर के साहित्य के प्रति सिर्फ क्रूर या करुण होने के दुराग्रही विभाजन को स्वीकारने का प्रश्न नहीं बल्कि उसकी जटिलताओं की परख करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। इस समय साहित्य अपने को किसी गंभीर सामाजिक जिम्मेदारी से अपने को जुड़ा पाता है और इस जिम्मेदारी को निभाने में उसकी सार्थकता भी तय होने लगती है। लेकिन यह साहित्य लेखन का एक अपेक्षाकृत अपरिपक्व दौर भी था क्योंकि इसमें व्यक्तिमन की अनगिनत जटिलताएँ, अंतर्भाव और अंधकार में डूबे कोने अभी रचनाकारों की पकड़ से अछूते थे। सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि जैसी स्थूल थी, वैसी ही स्थूल थी सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति। इस समय स्त्रियों से जुड़े मुद्दे बेहद अहम थे लेकिन पश्चिम में नारीवाद और अश्वेत साहित्य के विकास के दौर में पुराने साहित्य का जैसा मूल्यांकन हुआ है, डिकेंस और शेक्सपियर का जैसा तीखा विश्लेषण हुआ, हिंदी में नारीवादी आलोचकों ने अभी पुराने साहित्य की वैसी जाँच-परख नहीं की है। इससे नारीवादी आलोचना का विकास भी प्रभावित हुआ क्योंकि अतीत का सही क्रांतिकारी मूल्यांकन न होने से वह बौद्धिक ऊर्जा भी नहीं पैदा हो सकती जो किसी विचारधारा के विकास की अनिवार्य शर्त होती है। इस विडंबना की एक वजह यह भी है कि हिंदी में कई महत्वपूर्ण और जानी-मानी लेखिकाएँ हैं लेकिन आम तौर पर वे स्त्री-शोषण पर तो लिखना चाहती हैं लेकिन नारीवादी होने को लेकर कई तरह के भय-संकोच की शिकार हैं। बल्कि ऐसी लेखिकाओं के बारे में आलोचना लिखते समय भी उनकी खूबी के रूप में इसे पेश किया जाता है कि वे स्त्रीजगत व उसकी समस्याओं के बारे में लिखती हैं लेकिन नारीवादी कतई नहीं हैं। नारीवाद से हिंदी का यह उपेक्षा व आतंक का संबंध ऐसी परिस्थितियों में विचित्र ही कहलाएगा जब पूरी दुनिया में इसे एक विचार-दृष्टि के रूप में स्वीकार किया गया है और इसने न सिर्फ आलोचना के पुराने प्रतिमान तोड़े हैं। बल्कि परंपरागत चेतना को बदलने का नया औजार भी उपलब्ध कराया है। हिंदी में सुव्यवस्थित नारीवादी आलोचना अब तक विकसित नहीं हो सकी है और जिस तरह 19वीं सदी के पुरुष सुधारक ही ज्यादातर स्त्रियों के बारे में बोलते व लिखते थे, कुछ-कुछ उसी तरह अब भी हिंदी के पुरुष आलोचक ही नारीवादी दृष्टि के प्रचार का जिम्मा अपने कंधों पर ढो रहे हैं। हाँ, कभी-कभी कुछेक स्त्रियों को साथ मिलाकर वे आलोचना जगत में अपनी वैधता का प्रचार अवश्य कर लेते हैं।

अगर उस दौर के चार-पाँच आरंभिक उपन्यासों का विवेचन करें तो हम समाज व साहित्य को विरासत में मिले कई प्रभावों के बारे में बहुत नहीं तो थोड़ी अंतर्दृष्टि अवश्य हासिल कर सकते हैं। पंडित गौरीदत्त का 'देवरानी-जिठानी की कहानी' (1970), श्रद्धाराम फिल्लौरी का 'भाग्यवती' (1977), लाला श्रीनिवासदास का 'परीक्षागुरु' (1982), राधाकृष्णदास का 'निस्सहाय हिंदू' (1885) इस समय के प्रमुख उपन्यास थे जिन्होंने कई सामाजिक मुद्दों को उठाया और इनके रचनाकारों ने भी उपन्यास लेखन के लक्ष्य को अपनी सांस्कृतिक चिंताओं से जोड़कर देखा। इस दौर में डिप्टी नजीर अहमद भी उर्दू में कई उपन्यास लिख चुके थे और स्त्री शिक्षा की दृष्टि से उनका उपन्यास 'मिरातुल अरूस' विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। 'परीक्षागुरु' व 'निस्सहाय हिंदू' के अलावा तीनों ही कृतियों का उद्देश्य स्त्रीशिक्षा के महत्व की स्थापना करना है ताकि लोग घर की स्त्रियों की पारंपरिक अशिक्षा को दूर कर उन्हें शिक्षित बनाने पर ध्यान दें। 'देवरानी-जिठानी की कहानी' में मेरठ के अग्रवाल बनियों, 'मिरातुल अरूस' में दिल्ली के उच्चजाति के मशहूर खानदान, 'भाग्यवती' में काशी के ब्राह्मण, 'परीक्षागुरु' में दिल्ली में कारोबार करने वाले एक साहूकार और 'निस्सहाय हिंदू' में गोहत्या की चिंता करनेवाले उच्चजाति ब्राह्मणों की कथा कही गई है। इन्हीं उच्च जाति की हिंदू स्त्रियों के बारे में निर्मित चिंताओं के मद्देनजर ही उमा चक्रवर्ती ने अपने लेख 'वाट एवर हैप्पंड टू वैदिक दासी' में लिखा - 'स्त्रियों से जुड़े सवालों के संदर्भ में 19वीं सदी का पूरा ध्यान उच्च जाति की हिंदू स्त्रियों पर केंद्रित था, चाहे वह अतीत में उनकी उन्नत दशा को प्रकट करता हो या वर्तमान में उनकी निम्न दशा में सुधार करने की चेतना को।'

स्त्री शिक्षा का मुद्दा ऐसे शिक्षित पुरुष वर्ग के बीच से निकलकर आया था जो बंगाल से लेकर पंजाब तक नए स्कूल-कॉलेज, मदरसों या घर में अनौपचारिक पढ़ाई के जरिए शिक्षा का प्रसार करते हुए स्त्रियों के नए व्यक्तित्व की रूपरेखा खींच रहा था। परिवार में स्त्री की हैसियत पर विचार किए बगैर उसके लिए नई-नई भूमिकाएँ और अपेक्षाएँ प्रस्तावित की जा रही थीं। श्रद्धाराम फिल्लौरी ने अपने उपन्यास 'भाग्यवती' की भूमिका में ही लिखा है - 'बहुत दिनों से इच्छा थी कि कोई ऐसी पोथी हिंदी भाषा में लिखूँ कि जिसके पढ़ने से भारतखंड की स्त्रियों को गृहस्थ धर्म की शिक्षा प्राप्त हो क्योंकि यद्यपि कई स्त्रियाँ कुछ पढ़ी-लिखी तो होती हैं परंतु सदा अपने ही घर में बैठे रहने के कारण उनको देश-विदेश की बोलचाल और अन्य लोगों से वरत व्यवहार की पूरी बुद्धि नहीं होती है।' यानी स्त्री को घर के बाहर निकलने की छूट देने के लिए सुधारक अब भी नहीं तैयार थे, बस इतना चाहते थे कि वह घर के बाहर के संसार से परिचित हो जाए। परिचित भी उन्हीं चीजों और सीमाओं तक हो जहाँ तक पुरुष चाहते हैं। इस दौर में भारतीय स्त्रियों की स्थिति पर विचार करते हुए लेखक उनको भारतीय संस्कृति की विशिष्टता के प्रतीक के रूप में ढालते हुए पश्चिमी मेमसाहबों की आलोचना करते थे। पर वे यह नहीं समझ पाते थे कि खुद यूरोप में स्त्रियों की दशा इससे बहुत अलग नहीं थी। वहाँ भी स्त्री-पुरुष का सामाजिक कार्यों और व्यक्तित्व के आधार पर कड़ा लैंगिक विभाजन था। 19वीं सदी के यूरोप में स्त्री-पुरुष के रिश्तों पर विचार करते हुए उते फ्रेवर्ट ने लिखा था - 'बुर्जुआ माहौल होने के बावजूद वहाँ स्त्री पर ही जिम्मेदारी थी कि वह मध्यवर्गीय मूल्यों की रक्षा करे और सौंदर्य, प्रेम व वफादारी जैसे समस्त प्राकृतिक गुणों से पुरुषों को आनंद पहुँचाए।' (द पब्लिक द प्राइवेट, इश्यूज ऑफ डेमोक्रेटिक सिटिजनशिप, संपा - गुरप्रीत महाजन, सेज, 2004)।

इसके अलावा इंग्लैंड में भी 'अनवूमेनली' व्यवहार करने वाली स्त्रियों की कड़ी आलोचना होती थी। वहाँ भी लड़कों को रोजगार के लिए पढ़ाया जाता था जबकि उनकी बहनों को एक अच्छी गृहिणी, माँ और पत्नी बनने के लिए। यानी जिन अंग्रेज औरतों की कथित उच्छृंखलता व अति स्वतंत्रता के विपरीत हिंदुस्तानी औरत का मॉडल निर्मित किया जा रहा था, उसकी स्थिति भी अपने पुरुष समाज में वैसी ही थी जैसी भारत की औरतों की। लेकिन चूँकि उपनिवेशवाद के सामने अपनी संस्कृति के लिए भव्य आत्ममुग्धता खड़ी करनी थी, इसलिए अपने समाज की स्त्रियों को ही नहीं बल्कि अंग्रेज औरतों को भी पितृसत्ता की कसौटी पर कसने की कोशिश की गई। पितृसत्ता का यह अंतरराष्ट्रीय संस्करण था जिसमें अंग्रेज और भारतीय स्त्री, दोनों की मुक्ति को मुश्किल बनाने के हर संभव प्रयास होते थे। इसमें उपनिवेशक और उपनिवेशित, दोनों ही एक दूसरे की संस्कृति के बारे में भ्रामक दृष्टिकोण का प्रचार करते थे जिससे उनके बीच का शक्ति-संबंध बदल सके। स्त्रियों के चरित्र व सामाजिक स्थिति के बारे में व्याख्याएँ उपनिवेशक-उपनिवेशित के इन्हीं रिश्तों की शिकार होती रहीं। ये ऐसा सांस्कृतिक टकराव था जिसमें स्त्री की सांस्कृतिक विवशताओं को समझने के स्थान पर उसकी बुराइयों और कल्पित महानताओं के आधार पर एक नकारात्मक किस्म का स्त्री-विमर्श विकसित करने की कोशिश की जाती थी। भारतीयों को अगर अंग्रेज स्त्रियों की सच्चरित्रता और वफादारी पर संदेह था तो अंग्रेज हिंदू स्त्रियों की बेचारगी व पिछड़ेपन के आधार पर सांस्कृतिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में उनकी महानता के दावों को खंडित करते थे। 1927 में छपी अमेरिकी महिला कैथरीन मेयो की किताब 'द मदर इंडिया' के विवादों को इस संदर्भ में फिर से याद किया जा सकता है जहाँ उपनिवेशकों के लिए स्त्री-मुक्ति का प्रोजेक्ट साम्राज्यवाद की आवश्यकता को सिद्ध करने के तर्क के रूप में परिवर्तित हो गया था।

औरत को समझदार मशीनी गुड़िया में बदलने की हर कोशिश मौजूद है इस किस्म के सुधारवाद में। वह घर सँभालती है, सीने-पिरोने का काम करती है, घर के सौदे का हिसाब करती है और फिर जी खोलकर घरवालों से बतियाती है और उन्हें खुश रखती है। इस समय दो औरतों के बीच के अंतर को दिखाने के लिए उन्हें अलग-अलग रूप से गढ़ा गया। एक अच्छी है, दूसरी बुरी। एक निपुण है दूसरी निकम्मी। एक धर्म-कर्म में रुचि लेती है, दूसरी को इसकी परवाह ही नहीं है। 'देवरानी-जिठानी की कहानी' में भी दो भाइयों की बहुओं के बीच का अंतर दिखाया गया है। एक है जिसे घर का कामकाज नहीं आता और हमेशा लड़ती रहती है और दूसरे भाई की बहू है जो हर काम में निपुण है और अपनी सेवा-टहल से उन्हें प्रसन्न रखती है। इस दूसरी बहू की जीवनचर्या इस तरह है - 'सबेरे उठकर बुहारी देती। चौका बासन कर दूध बिलोती। फिर नहा-धो के भगवान का नाम लेती। रोटी चढ़ाती। जब लाला छोटेलाल रोटी खा के दफ्तर चले जाते, थोड़ी देर पीछे दौलतराम और उसका बाप दुकान से रोटी खाने आते। जब वे खा लेते और सास-जिठानी भी खा चुकतीं तब सबसे पीछे आप रोटी खाती। फिर सीना-पिरोना, मोजे बुनना, फुलकारी काढ़ना, टोपिया पै कलाबत्तू की बेल लगाना आदि में जिस काम को जी चाहता, ले बैठती। ...और जब कभी ज्ञान चर्चा छेड़ देती तो भगवत गीता के श्लोक पढ़-पढ़कर ऐसे सुंदर अर्थ करती कि सुनकर सब मोहित और चकित हो जातीं। रात को जब सब ब्यालू कर चुकते यह अपने चौबारे चली जाती और रात को दस बजे तक जहाँ-तहाँ की बातचीत करके हँसती और बोलती रहती।' यानी स्त्रियों पर घर-परिवार चलाने की नए सिरे से जिम्मेदारी तय की गई जिसमें उनसे समझदार होने की अपेक्षा तो की गई, पर पुरुषों के अधिकार क्षेत्र से उन्हें बाहर ही रखा गया। हर किस्म के पर्दे का भी परोक्ष व प्रत्यक्ष समर्थन दिख जाता है। स्त्रियों के लिए सबसे बड़ी सीख यह नहीं है कि वह अपना काम निपुणता से करें बल्कि ज्यादा अहम सीख यह है कि वे पुरुषों के अधिकारों को बरकरार रखने में उनका सहयोग करें। डिप्टी नजीर अहमद के उपन्यास 'मिरातुल अरूस' में असगरी नामक पढ़ी-लिखी स्त्री की समझदारी की कहानी है जो सीना-पिरोना जानती है, कर्ज और कानून का जंजाल समझती है और रुपये-पैसे का सही हिसाब रखती है। लेकिन इतने गुणों के बावजूद उसकी शादी के बाद उसके पिता दूरअंदेश खाँ उसे समझाते हैं कि, 'हजरत आदम बहिश्त में अकेले घबराते थे, इसलिए उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए औरत को पैदा किया। औरत का फर्ज है मर्द को खुश रखना और अफसोस है कि दुनिया में किस कदर कम औरतें इस फर्ज को अदा करती हैं। मर्दों का दर्जा खुदा ने औरतों पर ज्यादा किया न सिर्फ हुक्म देने से बल्कि मर्दों के जिस्म में ज्यादा कुव्वत और उनकी अक्लों में ज्यादा रोशनी दी है।' सुधारवाद की सबसे बड़ी सीमा यह थी कि वह जिनकी स्थिति में सुधार चाहता था, उन्हीं के अधिकारों पर नए सिरे से पाबंदी लगाने के लिए भी खास सतर्क था। इस किस्म का सुधारवाद पुरुष-स्त्री के बीच नए संबंधों के निर्माण में बुरी तरह फेल हो जाता है। मुस्लिम धर्म के सुधारवादी और हिंदू धर्म के सुधारवादी पितृसत्ता को संरक्षण देने के मामले में लगभग एक ही धरातल पर खड़े नजर आते हैं।

इस दौर के समस्त औपन्यासिक साहित्य में पितृसत्ता द्वारा औरत की जिंदगी में जो कदम-कदम पर मुसीबतें खड़ी की जाती हैं उनका जिक्र नहीं है, बस शिक्षा देने भर के जादुई असर का महिमागान किया गया है। इसके अलावा कौटुंबिक व्यभिचार, घरेलू हिंसा, प्रताड़ना, अभाव, भेदभाव ऐसे विषय हैं जिनसे ऐसे देश में हर स्त्री को गुजरना पड़ता है जहाँ उन्हें सुंदर कपड़ों व शस्त्रों वाली देवी के रूप में पूजने का भी काम किया जाता है। स्त्रियों का पुरुषों से किसी बात पर संघर्ष नहीं होता। संघर्ष होता भी किसी से है तो घर के नौकर-नौकरानियों से होता है जो सौदे-सुलुफ में बेईमानी करते हैं। नौकर-बहू के इस संघर्ष में अंततः जीत बहू की होती है क्योंकि वह नौकर की पोलपट्टी खोलकर रख देती है। 'भाग्यवती' में नंदा नामक नौकर और 'मिरातुल अरूस' में मामा नामक नौकरानी घर में गबन करते हैं और जब 'चतुर बहुओं' के द्वारा पकड़े जाते हैं तो घर से निकाले जाते हैं। यानी पुरुषों की तुलना में औरतों की हीनतर स्थितियों को ढँकने के लिए नौकरों-चाकरों से औरतों के संघर्ष को थीम बनाकर पेश किया गया। कमजोर वर्ग के लिए करुणा के स्थान पर उससे सावधान रहने और उसके शत्रुतापूर्ण इरादों को भाँपने की शिक्षा भी यही उपन्यास देते हैं। यह परिवार में स्त्री भूमिका के संस्थानीकरण का नए ढंग से किया जानेवाला सचेत प्रयास था। ऐसे में उसी दौर में लिखी ताराबाई शिंदे की किताब हमारे ज्यादा काम की हो सकती है। जब पुरुष सुधारक धर्म-संस्कृति की रक्षा करते हुए सुधारों के पक्ष में आवाज उठा रहे थे तब ताराबाई शिंदे ने पति-परमेश्वर की धारणा को ही नहीं बल्कि सीधे परमेश्वर को चुनौती दी थी जो खुद भी अपने में मर्द होने के कारण औरतों से भेदभाव करता है। उन्होंने 'स्त्री-पुरुष तुलना' में परमेश्वर को चालाक व पुरुष होने का अभिमान रखनेवाला बताते हुए सख्त टिप्पणी करने के अंदाज में पूछा, 'अहा रे देव तेरी भी ऐसी विचित्र गति क्यों है? आजन्म पति के लिए कोल्हू के बैल की तरह पिसने वाली स्त्री को अपने मुख से शब्द निकालने की न अनुमति है, न घर पर उसका अधिकार। यही है तेरा न्याय? हे विधाता, स्त्री के माथे पर यह कैसा वनवास लिख डाला तू ने? यदि ऐसी ही हर स्त्री की तकदीर है तो उसका निर्माण ही क्यों किया तू ने। कम से कम तुम्हें लक्ष-लक्ष गालियाँ तो न सुननी पड़तीं। हे परमेश्वर तुम भी बड़े चालाक हो। अपनी ही जाति को स्वच्छंदता और स्वतंत्रता दे दी। तुम्हें भी पुरुष होने का अभिमान है क्या?' लेकिन इस दौर के सुधारवादी उपन्यासों में परिवार में पुरुष की तुलना में स्त्रियों की हीनता पर खास ध्यान न देकर उन्हीं से शिक्षा व समझदारी के जरिए बेहतर 'परफॉर्म' करने के लिए संदेश दिया गया। हैसियत व अधिकारों के स्तर पर स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता को सामने लाने की बजाय औरत को औरत से भिड़ा दिया गया है और दिखाया जाता है कि किस प्रकार स्त्रियाँ ही स्त्रियों के खिलाफ साजिशें करती हैं और इन चीजों से अनजान पुरुषों में खुद कभी दुर्भावना नहीं होती, बल्कि कभी-कभी स्त्रियों के भड़काने पर ही वे गलत फैसले ले लेते हैं। 'भाग्यवती' उपन्यास में नायिका भाग्यवती काफी पढ़ी-लिखी और समझदार है लेकिन उसी की ननद व जिठानियाँ उसे चोरी के इल्जाम में फँसाती हैं जिससे आगबबूला होकर उसके ससुर पंडित जगदीश तय कर लेते हैं कि 'उस दुष्टा भाग्यवती को अभी पकड़ के घर के बाहर निकाल दो।' ऐसे में सवाल यह नहीं है कि स्त्रियों की शिक्षा का समर्थन, कन्या जन्म पर शोक का विरोध या कुछ सीमा तक बच्चों के लालन-पालन व घरेलू कामकाज में अंधविश्वासों का विरोध कर सुधारक अपने युग की विकासशील चेतना का परिचय दे रहे थे या नहीं। सवाल यह है कि परिवार में पुरुषों की सदियों पुरानी केंद्रीय वर्चस्वशाली भूमिका को तोड़े बिना क्या स्त्री को सचमुच अधिकार मिल सकते थे जिससे कि वह आजादी व सम्मान का जीवन जी सके। परिवार में ही स्त्री को स्त्री बनाया जाता है और उसके पहनावे से लेकर आचरण तक को नियंत्रित किया जाता है। आज भी स्त्री का जब यौन उत्पीड़न होता है, उससे छेड़खानी होती है तो दोष उसी के माथे पर मढ़ा जाता है कि जरूर उसने भड़काऊ कपड़े पहने होंगे या अपनी हरकतों से पुरुषों को आकृष्ट किया होगा। ऐसे में परिवार में स्त्री की दशा में वास्तविक सुधार तभी आ सकता था जब वह उत्पादन व संपत्ति के स्वामित्व में साझा करे। इसलिए स्त्री की विडंबना यह है कि पुरुषों के बनाए तंत्र में अगर वह अपने लिए स्थान चाहती है तो उसे अपनी हैसियत व योग्यता को स्वीकृति दिलाने के लिए पुरुषों पर ही अधिक निर्भर रहना पड़ता है और यह निर्भरता पुरुष-सत्ता को सही ठहराने की सांस्कृतिक विवशता में परिवर्तित हो जाती है।

एक तर्क रखा जाता है कि एक बार जो सुधार पुरुषों द्वारा शुरू किए गए, वे कितने ही सीमित क्यों न हों लेकिन वह प्रक्रिया एक बार आरंभ होने के बाद पुरुषों के हाथों से निकल जाती है और स्त्रियों की स्वतंत्रता का दरवाजा खुल जाता है। ऊपर से देखने में यह तर्क सही लगता है पर सच यह भी है कि प्रक्रिया पुरुष नहीं शुरू करते बल्कि समाज की वस्तुस्थितियों से इनका जन्म होता है। 19वीं सदी की वस्तुस्थिति पहले की सदियों की तुलना में भिन्न थी क्योंकि शिक्षा का विस्तार होने लगा था। ऐसे में स्त्री मुक्ति की प्रक्रिया पुरुषों द्वारा सिर्फ आरंभ ही नहीं की जाती है बल्कि अपनी स्थिति का लाभ उठाकर वह नियंत्रित ज्यादा की जाती है। यह इतिहास में व्यक्तियों की महानता को नकारना नहीं बल्कि उनकी महानता को सही ऐतिहासिक संदर्भों में रखकर परखने का प्रयास है। आज के संदर्भों को सामने रखकर शायद चीजों को समझा जा सके। आज भी स्त्री को पढ़ा-लिखाकर आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं किया जाता बल्कि बेहतर वर मिलते ही घर-संस्कृति के चूल्हे में झोंक दिया जाता है। यह समस्त सुधार व आधुनिकता से स्त्रियों को वंचित रखने का ही षड्यंत्र नहीं है तो और क्या है। इसलिए प्रश्न पुरुषों के द्वारा सुधार शुरू करने व फिर उस प्रक्रिया का उनके हाथ से निकल जाने का नहीं बल्कि यह है कि पुरुष अपने फायदे के लिए इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को किसी सीमा तक कुंठित करते हैं और स्त्रियों की मुक्ति को लगातार बाधित करते हैं।

यह सिर्फ जटिल अंतर्विरोध का मामला नहीं था बल्कि जटिल वर्चस्व का भी मामला था जिसमें स्त्रियों पर से वर्चस्व ढीला करने के लिए नहीं बल्कि उसे और कसने के लिए कुछ रियायतें दी जा सकती थीं। हर संस्कृति में ऊपरी जड़ता व स्थिरता के भीतर आंतरिक हलचलें मौजूद रहती हैं और इन हलचलों में ही कहीं उत्पीड़ित वर्गों के प्रति दृष्टिकोण की समीक्षा करने, उसे बदलने व पुराने दृष्टिकोणों को नष्ट करने की संभावनाएँ भी छिपी होती हैं। 19वीं सदी का सुधारवाद भी इन्हीं हलचलों की उपज है पर वह इन्हें किसी परिपक्व परिणति तक पहुँचाने के बजाय युग की सीमाओं से टकराकर अपने को भी निष्फल बना लेता है। इसमें स्त्री को नहीं बल्कि पुरुष को ज्यादा अधिकार मिलते हैं कि वह स्त्री को पढ़ा लिखाकर किस तरह से अपने परिवार-समाज में बदइंतजामी की शिकार हो रही अपनी पारंपरिक सत्ता व संपत्ति का ज्यादा अच्छे ढंग से संवर्धन कर सके। इसमें जिस प्रकार संपत्ति के अधिक कुशल इस्तेमाल के लिए नए तौर-तरीके अपनाए जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री के बेहतर उपयोग की रणनीति बनाई जाती है। संपत्ति और स्त्री, दोनों बेहतर मैनेजमेंट की माँग करने लगती हैं। सामंती समाज में प्रजनन-श्रम तक सीमित स्त्री फिर एक बार सुधारवादियों के हाथों चतुर बहू बना दी जाती है और व्यक्तित्व अर्जन के क्षेत्र में सांस्कृतिक बाधाओं को लाँघना तो दूर उनके सही विश्लेषण की आवश्यकता से भी वंचित कर दी जाती है। वस्तुकरण से मानवीयकरण की इस प्रक्रिया की विफलता इसमें निहित है कि जिस स्त्री के लिए इस प्रक्रिया की आवश्यकता है, वही इसे निर्धारित करने की स्थिति में नहीं है बल्कि प्रक्रिया का नियंत्रण उनके हाथ में है जो अविवेक व चतुराई के घातक मिश्रण के कारण स्त्री को अपने बराबर मानने के लिए तैयार नहीं हैं। सुधारकों की सहज मानवीय संवेदनाएँ स्त्रियों को मिलती हैं लेकिन उन संवेदनाओं में मर्यादा-रक्षा का जो आग्रह छिपा है, वे उसकी भी शिकार हो जाती हैं।

एक नए मध्यवर्ग की चिंताएँ भी इस दौर के उपन्यास साहित्य में हैं जिसके तहत शहरों की ठगी व लूट से वह अपने को बचाना चाहता है। धोखेबाजी, लूट व ठगी के कई किस्से इन उपन्यासों में मौजूद हैं और संपत्ति-संरक्षण की मध्यवर्गीय चिंताएँ भी। उपन्यासों में हाशिए की यह कहानियाँ भी कम रोचक नहीं हैं और दिखाती हैं कि किस तरह तत्कालीन मध्यवर्ग की आत्मचेतना मूलतः एक भयभीत व असुरक्षित समुदाय के रूप में बदलती जा रही थी और वह शिक्षा की नाव पर सवार होकर सामाजिक अनिश्चितता की वैतरणी को पार करने के लिए संघर्षरत था। इसमें चमत्कारी बाबाओं की ठगी, चोरों की फरेबी और जालसाल औरतों का संसार है जिनसे परिवार और संपत्ति की रक्षा करनी है। एक नई शहरी संस्कृति की तरफदारी है जिसमें इन लोगों को अपना हुनर दिखाने का मौका न मिले और यह संस्कृति सिर्फ पुलिस प्रशासन के बलबूते नहीं बल्कि परिवार की स्त्रियों को ज्यादा चौकस और शिक्षित करके निर्मित की जानी है।

इन दिनों पब्लिक स्फीयर की धारणा पर बड़ा जोर है जिसमें मुख्य रूप से बूर्जुआ वर्ग की राज्य से स्वतंत्र सामाजिक गतिविधियों के अध्ययन पर खास जोर दिया जाता है। इन गतिविधियों में साहित्य, कला, पत्रकारिता व राजनीति सभी कुछ शामिल रहता है। यह पब्लिक स्फीयर राज्य की ताकत पर अंकुश लगाता है क्योंकि राज्य की शक्ति की तुलना में इसके पास वैचारिक ताकत ज्यादा होती है। इस धारणा को नवजागरण पर भी इस्तेमाल करके देखा गया है और भारतेंदु से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी तक के योगदानों को इसी धारणा से समझने की कोशिश वसुधा डालमिया और फेंचिस्का ऑर्सनी ने की है। पर इस धारणा की भी सीमाएँ स्पष्ट हैं क्योंकि इसमें राष्ट्र व समाज के सवालों का कई बार काफी दूर तक जाकर अमूर्तन कर दिया जाता है और गेल ओमवेड ने बड़ी पीड़ा के साथ इसी बात को लिखा है कि पूरे औपनिवेशिक काल में बूर्जुआ राष्ट्रवाद ने सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक स्फीयर) का दायरा बड़ा सीमित और संकीर्ण बनाए रखने की ही कोशिश की। इस विडंबना को उन्होंने आधुनिकता से भी जोड़कर देखा जिसमें प्रगति, तार्किकता और सार्वभौमिक मानवाधिकारों का इस कदर अमूर्तन किया जाता है कि समाज के कई पीड़ित वर्ग जैसे स्त्रियाँ, निम्न जातियाँ और गुलाम इसकी परिभाषा के दायरे से बाहर रखे जाते रहे लेकिन इन्हीं उत्पीड़ितों ने भौतिक धरातल पर कड़े संघर्ष कर आधुनिकता में अपना स्पेस सुरक्षित किया और राष्ट्र व आधुनिकता को ज्यादा गहरे अर्थों में ठोस व व्यावहारिक सच्चाई में बदलने का प्रयास किया। गेल ओमवेड ने पार्थ चटर्जी की उस मान्यता को भी चुनौती दी है जिसके मुताबिक 19वीं सदी में राष्ट्र हकीकत में राज्य के दायरे के बाहर निजी संसार (प्राइवेट स्फीयर), घर और अंदरूनी जगत में अपना आकार ले रहा था। घर-परिवार की संस्कृति के भीतर कहीं राष्ट्रीय गौरव की तलाश थी क्योंकि समाज व राजनीति में अंग्रेज पहले ही अपनी श्रेष्ठता व शक्ति को भारतीयों के ऊपर थोपने में सफल हो चुके थे। ओमवेड ने फुले व अन्य गैर ब्राह्मण विचारकों के तर्कों का हवाला देते हुए बताया है कि घर-निजी संसार में राष्ट्र का निर्माण होते देखना भ्रम फैलाने जैसा है क्योंकि जाति विभाजन इस तरह के राष्ट्र निर्माण को बाधित करने की हर किस्म की कोशिश करता था। (गेल ओमवेड, 'द स्ट्रगल फॉर सोशल जस्टिस एंड द एक्सपेंशन ऑफ पब्लिक स्फीयर', 'द पब्लिक द प्राइवेट' किताब में संकलित)।

इन उपन्यासों के साथ ही स्त्री को राष्ट्र के आदर्श प्रतीक में ढालने की कोशिश मौजूद है। बंकिमचंद्र के उपन्यास और भारतेंदु के नाटक इसकी मिसाल हैं। अर्नेस्ट गेलनर ने कहीं लिखा है कि राष्ट्र कभी राष्ट्रवाद को नहीं पैदा करता बल्कि राष्ट्रवाद ही राष्ट्र को जन्म देता है। 19वीं सदी में भी बौद्धिक वर्ग की सबसे बड़ी चिंता भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने की थी, इसलिए वह बार-बार अतीत की महानता का उद्बोधन करता था जिससे लोगों का यह भ्रम दूर हो सके कि भारत की वर्तमान हीन दशा के कारण उसके राष्ट्र के रूप में विकसित होने की कोई संभावना ही नहीं है। इसमें देशोन्नति और आत्मोन्नति के सिद्धांत भी परस्पर घुल-मिल जाते थे। देश के विकास के लिए शराब पीने और पर-स्त्रीगमन को छोड़ देने को जरूरी बताया जाता था। इस प्रकार नैतिक शुद्धतावाद भी राष्ट्र के पुनर्सृजन की अनिवार्य शर्त बन जाता था। राष्ट्रवाद अपने क्लासिकल अर्थों में एक बाहरी पाखंड या दिखावे की बजाय भावबोध के स्तर पर ग्रहण और भावबोध के स्तर पर ही अनिवार्यता के अनुभव से जुड़ा होता है। इसमें भविष्य के बारे में सुंदर, आकर्षक और मनोहारी कल्पनाएँ करने की प्रवृत्ति मौजूद होती है और राष्ट्रीय पराजय या हताशा के क्षणों में उन कल्पनाओं को यथार्थ का प्रतिरूप मानने का आग्रह भी निहित रहता है। नैतिक शुद्धतावाद का यह पाठ लगभग हर प्रकार के राष्ट्रवाद में मौजूद रहता है क्योंकि राष्ट्रवाद भी तुलसी के रामराज्य और मार्क्स के वर्गहीन समाज की तरह अंततः एक यूटोपिया ही है जो अपने बुनियादी आदर्शों के अनुरूप यथार्थ को बदलकर मनुष्य की तमाम समस्याओं को सुलझाने का दावा करता है। यह बात अलग है कि राष्ट्रवाद का यह यूटोपिया अपने विकृत रूप में समाज के बड़े हिस्से के लिए दुःस्वप्न में बदल जाता है। राष्ट्रवाद नागरिकों का कल्याण कर सकता है तो उन्हें अराजकता, जंग और हिंसा की भट्टी में भी झोंक सकता है। भारत में कल्पित राष्ट्र और क्षेत्र-स्थानीयता के बीच का द्वंद्व इस समस्या को और बढ़ा सकता है। यहाँ यह द्वंद्व कई बार इतना प्रखर हो जाता है कि भारत का एक छोटा-सा हिस्सा ही राष्ट्र को महत्वपूर्ण मानता है और उसी के संदर्भ में देश की एक समग्र भौगोलिक इकाई के रूप में कल्पना करता है। इसके विपरीत सुदूर इलाकों में बसी बड़ी आबादी ऐसी है जो राष्ट्र के विरोध में न होने के बावजूद अपने क्षेत्र-स्थानीयता को ज्यादा महत्वपूर्ण मानती है। यह आबादी राष्ट्र के संदर्भ में क्षेत्र-स्थानीयता को नहीं देखती बल्कि क्षेत्र-स्थानीयता के संदर्भ में राष्ट्र की स्थिति, परिकल्पना व व्यवहार को परिभाषित करने को जरूरी समझती है। इसके अलावा राष्ट्रवाद से कुछ अलग, विशिष्ट दिखाने के लिए इसमें तमाम नैतिक उद्बोधन, आस्थाएँ और सद्गुण भी जोड़ दिए जाते हैं। नैतिक शुद्धतावाद के इस राष्ट्र-विमर्श की धुरी में स्त्रियाँ ही मौजूद थीं और उन्हीं की पश्चिमी स्त्रियों से भिन्नता रेखांकित करते हुए भव्य राष्ट्रीय-सामाजिक गुणों का पाठ निर्मित किया जाता था। 19वीं सदी के अपने विशिष्ट राजनीतिक संदर्भ थे। जो लोग परंपरा की तुलना में सुधार के पक्ष में रहते थे, वही राष्ट्रीयता का सवाल आने पर घनघोर परंपरावादी हो जाते थे। जैसे कि भारतेंदु ने नाटक 'नीलदेवी' (1881) में योरोपियन स्त्रियों की तुलना में देश की सीधी-सादी स्त्रियों की हीन दशा पर अफसोस जताया, वहीं दूसरी ओर यह कहकर भी सफाई दी कि 'इससे यह शंका किसी को न हो कि मैं स्वप्न में भी यह इच्छा करता हूँ कि इन गौरांग युवती समूह की भाँति हमारी कुल लक्ष्मी गणा भी लज्जा को तिलांजलि देकर अपने पति के साथ घूमें।' यानी सुधारकों ने अपनी ओर से तय कर लिया कि पुरुषों के साथ घूमने से स्त्रियों की लज्जा समाप्त हो जाती है।

स्त्री-पुरुष संबंधों की इस जटिलता में स्त्री के मनोजगत का औपनिवेशीकरण होता है जिससे वह पुरुषों की बातों के लिए विनम्रता दिखाएँ और उसके संबंध में किसी भी प्रश्नवाचकता को मन में जगह न दें। जिस तरह से 19वीं सदी के पुरुष औपनिवेशिक गुलामी के शिकार हो जाने के बावजूद उसे सही व उपयोगी मानते थे, उसी प्रकार उनके मन में विश्वास था कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की सुधारवादी गुलामी का औचित्य ढूँढ़ लेंगी और उसी में अपने विकास की ठीक उसी तरह से संभावनाएँ देखेंगी जिस तरह से वे खुद उपनिवेशवाद में अपने विकास की स्थितियाँ निर्मित होते देख रहे थे। उपनिवेशवाद के मनोविज्ञान का यह परिवार की अंदरूनी दुनिया में विस्तार था। पुरुषों का उपनिवेशवाद के आगे समर्पण खुद परिवार की उनकी अपनी स्त्रियों से पुरुषों के समक्ष नए ढंग के समर्पण की आशा का जनक बन गया था। वे अंग्रेज हाकिमों के आगे झुककर उपनिवेशवाद के फायदे उठा रहे थे तो परिवार की स्त्रियों से यह अपेक्षा करते थे कि वे पुरुष जो भी नई चीजें व सुविधाएँ उन्हें दे रहे हैं, उनमें कोई मीन-मीख निकाले बगैर उन्हें स्वीकार करती रहें। व्यक्तित्व अर्जन के क्षेत्र में आड़े आनेवाली सांस्कृतिक बाधाओं के सामने विवशता को पूर्ववत स्वीकृति देकर पुरुषों से अपेक्षा रखें और इंतजार करें कि वह इन बाधाओं को उनके सामने से हटाएगा। जिस तर्क से औपनिवेशीकरण को वैधता मिलती थी लगभग उसी तर्क से परिवार में पुरुषों की सत्ता को भी वैधता प्राप्त होती थी। अंग्रेजी शासन में पुरुष की स्थिति एक शिक्षित चाकर की थी जो अपने मन में गुलामी के औचित्य को भलीभाँति अनुभव करता था, उसी प्रकार वह परिवार में स्त्री को भी पढ़े-लिखे गुलाम की छवि में देखता था और स्त्रियों के मन में गुलामी के औचित्य-स्थापन के प्रति सीमा से अधिक आश्वस्त था।


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